मैं नालंदा विश्वविद्यालय बोल रहा हूँ

 मेरे बारे में आपने सुना ही होगा। ऐतिहासिक  के प्रमाण के अनुसार मैं अपने स्थापना के बारे में बता देना चाहता हूं । तो मेरा स्थापना गुप्तकालीन सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने 413 - 455 ईस्वी पूर्व में की अगर मैं बोलूं तो मेरा स्थापना 5 वी शताब्दी में हुआ। मैं इतना बड़ा और सुंदर था कि मेरे प्रांगण में आने वाले इंसान प्यार और स्नेह से भर जाया करते थे। मेरी लंबाई 800 फीट थी चौड़ाई 1600 फिट थी मैं 30 एकड़  मैं फैला था और मेरे अंदर की कहानी के बारे में आगे आप खुद जान जाइएगा। हां तो मैं नालंदा विश्वविद्यालय बोल रहा हूं। तो मेरे बारे में तो आपने बहुत कुछ सुना ही होगा क्योंकि मेरा इतिहास कुछ अनोखा है मैं ज्ञान का भंडार था मैं नई उड़ान का पुरानी पहचान था मुझ में बस्ती थी एक अलग दुनिया जिससे मैं खुद में ही एक पहचान था चाहत थी की खुद को और बड़ा बनाऊं मैं , मैं ज्ञान की इस सागर में एक अलग ज्ञानी था चीर कर बादलों को मंजिल तक पहुंचाने वाला मैं एक अलग अभिमानी था सबसे पहले आप सबको मैं बता देना चाहता हूं कि मैं रहता कहां था तो मैं बिहार राज्य के एक बड़े से जिले में निवास था जिसका नाम नालंदा जिला था अगर मैं इस जिले के बारे में बोलूं तो यह खुद में ही एक अद्भुत परिचय था मेरे जिले में घूमने के लिए एक से एक स्थल है मेरा जिला खुद में ही एक सुंदरता का परिचय है और इस जिले में मैं भी एक अद्भुत था। मैं खुद में ही एक ऐसा    परिचय था कि भारत ही नहीं विदेश में भी अपने नाम का कहर बरसा करता था मेरे पास ज्ञान प्राप्त करने के लिए देश-विदेश से लोग आते थे क्योंकि मैं दुनिया का प्रारंभिक विश्वविद्यालय था मेरे अंदर एक खूबसूरती बस्ती थी। मेरे अंदर ज्ञान का भंडार था कि मैं किसी की भी जिंदगी बदल सकता था मुझसे लोग प्यार करते थे लेकिन मैं अपने नम आंखों से बोलूं तो कुछ लोगों को ये प्यार अच्छा नहीं लगा मैं तो अंधकार को दूर करने वाला प्रकाश था लेकिन फिर भी मुझे मार दिया गया किसी से दुश्मनी ना होते हुए भी मुझसे दुश्मनी निकाली गई शायद मेरे बारे में आप पढ़ोगे तो आपके आंखें नम हो जाएगी। लेकिन कुछ दर्द मेरे अंदर इतना है की उसको बयां करने से मेरी आंखें नम हो जाती है जब मैं मारा जा रहा था तब पता नहीं लोगों का प्यार स्नेह कहां चला गया था मैं खुद में ही पूरी तरह से डर गया था मेरे अंदर से उठने वाली दर्द भरा आवाज को कोई नहीं सुन पाया यह सब बात करते हुए मैं आगे की कहानी आपको और बयां करता हूं तो चलिए और कुछ बातें हैं जो आपको मैं बता देना चाहता हूं। की मैं अपना कुछ गौरवशाली इतिहास बताता हूं , हां मैं वही विश्वविद्यालय हूं। जो एशिया के सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी था मैं जिस तरीका से आकार में बड़ा था उस तरीका से ज्ञान में भी बड़ा था लेकिन मेरी बदनसीबी के कारण ज्ञान को मैं खोकर अब सिर्फ आकार में ही बड़ा हूं मेरे पास अब ज्ञान नहीं बस देखने और घूमने का मोल रह गया हूं । मेरे पास देने के लिए कुछ अब बचा नहीं सिर्फ अपने परिचय के सिवा मैं अपने विनाश के बारे में सोचता हूं तो मेरे अंदर  के  रोम- रोम कांप उठती है लेकिन कुछ पागल नरभक्षी लोगों ने मुझे तड़पा तड़पा के मार डाला ना मैं किसी का कुछ बिगाड़ा था ना मेरी किसी से जाति दुश्मनी थी फिर भी मुझे जला  दिया गया लेकिन तुर्की शासक नरभक्षी के पागल राजा बख्तियार खिलजी ने मुझे और मेरे पुस्तक भंडार को जलाकर राख कर दिया। इसने मेरे ज्ञान और अपनेपन को मिटा दिया खुद को जलते देखकर मैं तड़प रहा था चिल्ला रहा था मेरे अंदर बसी ज्ञान को मैं धीरे-धीरे खो रहा था मैं अपने पुस्तक भंडार को जलते देखकर मैं लहू के आंसू रो रहा था इसी तरह मैं महीनों तक चलता रहा पर किसी ने मेरी सुध तक नहीं ली मैं खुद का ही कहानी सुनाने में खुद काप रहा हूं। मेरे प्रागंण में करीबन 10,000 से ज्यादा विद्यार्थी पढ़ा करते थे विद्यार्थियों मेरे प्रांगण के सुंदरता में से एक थे अपने सपनों को लेकर मेरे पास आया करते थे और मुझसे उम्मीद लगाया करते थे कि मैं इन्हें एक अच्छी परवरिश के साथ एक अच्छा भविष्य दे सकूं इन विद्यार्थियों से मेरे प्रगण में कोयल की आवाज सा एक सुकून भरी आहट कुकू आहट शोर मचाती थी और मैं इन्हें देख कर मन मस्तक हो  जाया करता था। इनके होने से मेरे सुकून भरे जिंदगी में रौनक आ जाया करती थी इनको देखकर मेरे मन में और उम्मीद के सपने उत्पन्न होने लगी लेकिन मुझे नहीं पता था की यह उम्मीद के सपने बस सपने ही रह जाएंगे खैर बोला जाता है।  की     
   किस्मत किसी को कहां ले जाता है पता नहीं चलता
उसी तरह मुझे भी पता नहीं चला इसी को देखते हुए में आपको आगे की कहानी और बता देना चाहता हूं और मेरे आंगन में इन विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए 2000 आचार्य मौजूद थे खुद में ही बड़े-बड़े ज्ञानी थे इनके पढ़ाने के तरीके से मेरे परागण की रौनक हमेशा बनी रहती थी यह अपने ज्ञान से मुझे और गौरवशाली बनाते थे इनसे मेरी रौनक और बढ़ जाती थी फिर यानी बोला जाए तो 5 विद्यार्थी पर एक आचार्य थे मेरे प्रांगण में रहने वाले विद्यार्थी आचार्य सबको रहने खाने पीने वस्त्र और चिकित्सा सुविधा निशुल्क थे मेरे आंगन के विद्यार्थी सपने के चादर ओढ़ कर सोते थे और सूरज की किरणों के साथ नई उड़ान को लेकर उठते थे मैं नालंदा विश्वविद्यालय पूर्ण रूप से शांति का संदेश देने वाले भगवान बौद्ध से प्रेरित था भगवान बौद्ध के ज्ञान के आचरण से संदेश का भंडार लिया और मैं शांति का प्रतीत बनता चला गया इनके आचरण से निकले संदेश मेरे रोम रोम में समा गए और इनके ज्ञान और संदेश के कारण खुद में ही मैं ज्ञान और शांति की आचरण बनता चला गया और मेरे परागण के दीवारें पर जगह जगह पर भगवान बौद्ध के प्रतिमाएं प्रस्तुत बनाए गए थे अगर मैं भगवान बौद्ध के बारे में बोलूं तो बड़े-बड़े आचार विद्यार्थी भगवान बौद्ध के सामने नर मस्तक होकर शिक्षा ग्रहण करते थे अगर और ज्ञान की  बात करूं तो मेरे यहां महायान के प्रवर्तक नागार्जुन वसुबंधु संघ तथा धर्म कृति की रचनाओं का संख्या भी पढ़ाई जाते थे व्याकरण दर्शन ज्योतिष योग शास्त्र तथा चिकित्सा शास्त्र भी पढ़ाए जाते थे इतने ज्ञान को अपने अंदर रखता था तभी जाकर मैं ज्ञान का भंडार कहलाया इसी ज्ञान के भंडार के कारण में प्रसिद्ध होते चला गया और फिर धीरे-धीरे मैं सबके दिलों पर राज करने लगा और मुझे प्यार और स्नेह मिलने लगा और इसी प्यार स्नेह के कारण मेरे प्रांगण में रहने वाले आचार्य और विद्यार्थियों को किसी चीज का दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ता था अगर मैं बताऊं तो मुझे 200 गांव दान में मिले थे और इन्हीं 200 गांव के आय और अनाज से मेरा खर्चा और भरण पोषण चलता था इस कारण से मैं खुद में ही शान बनते चला गया मेरे प्रांगण में नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक था मेरे प्रांगण में प्रवेश करने के लिए प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और इन्हीं तीन कठिन परीक्षाओं अस्त्रों को से गुजरना पढ़ता था इन कठिन परीक्षाओं से गुजर कर उनको मेरे प्रांगण में प्रवेश करने का अनुमति प्रधान होता था और मेरे प्रांगण में तीन श्रेणियों  के आचार्य जो अपनी योगिता अनुसार प्रथम द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे नालंदा के प्रसिद्ध आचार्य में शीलभद्र धर्मपाल चंद्रपाल गुणवती और स्थिरमती प्रमुख थे मेरे यहां छात्र संघ का भी  प्रधान था जोकि कुछ बातें छात्र संघ अपने में सुलझाना पढ़ता था विद्यार्थियों के रहने के लिए 300 कमरे थे । अगर मैं छात्र संघ की बात करूं तो यहां छात्रों का अपना संस्था वह खुद इसकी व्यवस्था तथा चुनाव करते थे। यह संघ छात्र संबंधित विभिन्न मामला जैसे छात्रावास का प्रबंध आदि करते थे यही खुशहाली को देखते देखते मैं आगे बढ़ रहा था लेकिन मुझे नहीं पता था कि जैसे जैसे मैं आगे बढ़ रहा हूं वैसे वैसे मेरी मृत्यु नजदीक आ रही है मैं अपने प्रांगण की खुशहाली देखकर मैं उस में मगन था लेकिन मेरी खुशी देखी नहीं गई आगे की कहानी में मैं अपने गम भी बताऊंगा मेरे को ना किसी से दुश्मनी थी ना ही गिला शिकवा मैं तो ज्योति का प्रकाश था मैं तो ज्ञान का सागर था मैं तो गौतम बौद्ध के संचार पर चलने वाला शांति का उपदेश था अगर मैं कहूं तो मैं दुनिया के सबसे पुराने विश्वविद्यालय था लेकिन मेरे पास आज अफसोस के सिवा कुछ नहीं है बस अब बचा है तो मेरे अवशेष जो आज भी मौजूद हैं मैं विश्व का एक धरोहर विश्वविद्यालय था क्योंकि मेरे प्रांगण में दुनिया के कुछ कोनों से विद्यार्थी मेरे पास आते थे और मुझे इस बात से भी गर्व होता था कि जिस जिले में मैं रहता हूं उस जिले का प्राचीन इतिहास है और इस इतिहास के कारण नालंदा जिला दुनियाभर में प्रसिद्ध है मैं अपनी भूमि से बहुत प्यार करता था और दूसरों के प्रति भी मेरा प्यार बहुत ज्यादा था लेकिन
 अफसोस की मेरा प्यार फीका रह गया मैं प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और ज्ञान का केंद्र था फिर भी मैं कुछ लोगों की आंखों में चुभने लगा मुझे अपनी मेहनत से खोजने वाले अलेक्जेंडर कनिंघम को मैं अपने दिल से नमन करता हूं मेरे ऊपर इनका उपकार है जिन्होंने मुझे जिंदगी दी और जीने का महत्व दिया मैं अपने आप में बहुत खुश था की मुझे खोजा जा चुका है और मैं इस बात से भी बहुत खुश था कि मैं हर इंसान की मंजिल को भी खोज सकता हूं लेकिन कुछ भी हो लेकिन मुझे अपने कहानी सुनाने में गर्व महसूस होता है लेकिन सुनाने के दौरान मेरे आंखें नम और अपने दर्द को सहता हूं ।लेकिन जो भी हो मैं अपने आप में बहुत खुश था मेरे प्रांगण में कोरिया जापान चीन तिब्बत इंडोनेशिया फ्रांस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे मैं अपने प्रांगण में आते देख विद्यार्थी को बहुत खुश होता था मेरा दिल प्यार और स्नेह से भर जाता था मैं एक ऐसा विश्वविद्यालय था की अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ था मैं नालंदा विश्वविद्यालय स्थापना कला का अद्भुत नमूना था मेरा पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने आने के बाद स्तूप और मंदिर थे उस मंदिर में भगवान बौद्ध की सुंदर मूर्तियां थी  अगर मैं अपने कमरे की बात करूं तो मेरे प्रांगण में 7 सबसे बड़े कक्ष थे। और इसके अलावा 300 अन्य कमरे भी थे मेरे प्रांगण में मठों की भी संख्या अधिक से भी अधिक थी और हमारे यहां के कमरे में पत्थर के चौकी होती थी और अगर बोलूं तो दीपक पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने थे मैं अपने सुंदरता को अपने हृदय मैं बसाकर रखता था मेरे अंदर 8 विशाल भवन थे 10 मंदिर और उनके प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा परिसर में सुंदर बगीचे भी थे और इसके साथ झील भी थी इन सब के बारे में मैं सोचता हूं तो मेरा दिल मोहित हो उठता है जैसे लगता है कि इतना खूबसूरत नजारा मैं हूं लेकिन मेरा खुशी और सुंदरता भी कुछ लोगों से देखा नहीं गया मैं अपनी सुंदरता को लेकर अपना जिंदगी जी रहा था लेकिन मेरी उम्र इतनी कम होगी मैंने कभी अपने सपने में भी नहीं सोचा था लेकिन फिर मैंने अपने अंधकार भविष्य को देखा तो मेरी रोम रोम कांप उठी मेरी दिल दहला उठा इसी तरह बात करते-करते हम आगे की कहानी और जानते हैं समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे। जो विधवाओं द्वारा निर्वाचित होते थे और अगर बोलूं तो कुलपति दो  परमासरदात्री समितियों के बैठक से सारा प्रबंध करते थे और प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखते थे और द्वितीय समिति भी हुआ करती थी और इनका काम  सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देखभाल करना था और मुझे दान में मिले 200 गांव से प्राप्त उपज और आए को देख रेख यही समिति करती थी इसी से सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था इन 200 गांव ने कभी अकेला महसूस नहीं होने दिया लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है कि इनका प्यार फीका पड़ गया और मैं इन सब गांव से दूर होने लगा खैर आगे की कहानी में इसके बारे में और जानेंगे। और नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र धर्मपाल चंद्रपाल गुणवती और स्थिरमती प्रमुख थे मेरे विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे इसके अतिरिक्त पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी दिन में हर पहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था अगर मैं अपने अध्ययन क्षेत्र के बारे में बात करूं तो, वो अद्भुत दुर्लभ है मेरे यहां महायान के प्रवर्तक नागार्जुन वसुबंधु असंग तथा धर्म कृत्य की शिक्षा का बात करूं तो वेद वेदांत और योग्य शास्त्र तथा चिकित्सा शास्त्र की भी पाठ्यक्रम के अंतर्गत थे अगर मैं और शिक्षा के बारे में बात करूं तो मेरे यहां कदाचित धातु की मूर्तियां बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था मेरे यहां खगोल शास्त्र का भी अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग भी था मेरे अंदर एक से एक चीज का निवास था अभी मैं आपको अपने पुस्तकालय के बारे में तो बताया ही   नहीं जो मेरे दिल की धड़कन थी जिसके कारण मैं और ज्यादा गौरवशाली हो जाता था जिसके कारण लगता था कि मैं कितनी बड़ी बुलंदियों को छू रहा हूं मेरे विशाल पुस्तकालय के कारण और ज्यादा गौरवशाली हो गया मेरे प्रांगण में सहस्त्रों विद्यार्थियों और अचार के अध्ययन के लिए नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था जिसमें 300000 से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था इन पुस्तकों के कारण मेरे अंदर ज्ञान का भंडार समा गया था और इसी पुस्तकों के कारण मैं विश्व का सबसे बड़ा ज्ञान धारी विश्वविद्यालय बन गया मेरे पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तक थी। यह 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर' नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था। 'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। उस दौरान जब मैं समाप्त हो रहा था तो, अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे। मैं अपने पुस्तकालय के समाप्त होने की कहानी भी आपको आगे जरूर बताऊंगा तो फिर चलिए हम आगे और कुछ बात करते हैं।प्रसिद्ध चीनी विद्वान यात्री ह्वेन त्सांग और इत्सिंग ने कई वर्षों तक यहाँ मेरे पास सांस्कृतिक व दर्शन की शिक्षा ग्रहण की। इन्होंने मेरी यात्रा वृत्तांत व संस्मरणों में नालंदा के विषय में काफी कुछ लिखा है।मेरे यहां सहस्रों छात्र नालंदा में अध्ययन करते थे और इसी कारण नालंदा प्रख्यात हो गया  था। दिन भर अध्ययन में बीत जाता था। विदेशी छात्र भी अपनी शंकाओं का समाधान करते थे। मेरे यहां विश्वविद्यालय के विख्यात विद्वानों के नाम विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर श्वेत अक्षरों में लिखे जाते थे। विद्यार्थियों के शान शौकत देखकर मैं भी बहुत प्रसन्न रहता था। यही सब देखते देखते मैंने कितनी उम्र गुजार दी और एक दिन मेरा उम्र का अंत हो गया मैंने अपने प्रांगण को जलते देखकर अगर बोलो तो खून का आंसू मैं रो रहा था, और जैसे लग रहा था कि यह दिन गुजर ही नहीं रही है समय जैसे थम सा गया है आकाश में बादल जैसे रुक सी गई जी हां मुझे ऐसा ही लग रहा था अगर मैं बोलूं तो खुद पर बीती हुई दर्द खुद से बेहतर कोई नहीं समझ सकता हां तो मेरे कुछ अंत की कहानी आपको और मैं बताता हूं एक ऐसा राजा जिससे ना मेरी कोई दुश्मनी थी ना ही और कुछ फिर भी उसने मुझे नष्ट कर दिया मैंने क्या बिगाड़ा था किसी का मैंने कौन सी गलती किया था कौन सा पाप किसी का जिंदगी बचाना पाप है किसी का जिंदगी सवार ना पाप है मैं तो सच्चाई के राह पर चलने वाला ज्ञानी था लेकिन फिर भी उस समय सच्चाई की हार हो गई उस समय एक अधर्म राजा बख्तियार खिलजी की जीत हो गई तुर्की शासक के राजा बख्तियार खिलजी ने मुझे और मेरे पुस्तक भंडार को जलाकर राख कर दिया मेरे प्रांगण की खूबसूरती को अष्ट नष्ट कर दिया और धीरे-धीरे मैं नष्ट होते चला गया लेकिन मेरा दर्द किसी ने भी नहीं सुनी धीरे-धीरे मैं दफन होते चला जा रहा था जैसे कि मैं अपना अस्तित्व भूलते चला जा रहा मेरे अंदर दर्द की लो उबल रहा था मैं इस तरह महीनों तक जलता रहा लेकिन किसी भी ने मेरे प्रति प्यार और स्नेह नहीं दिखाया हा तो मैं उस राजा के बारे में बताता हूं तो एक समय की बात है की  क्रूर लुटेरे बख्तियार खिलजी नाम के मूर्ति पूजक के विरोधी की तबीयत खराब हो गई किसी गंभीर बीमारी ने उसे जकड़ लिया था उसने अपने नीम हकीम ओर से बहुत ही इलाज करवाया लेकिन उसकी तबीयत ठीक नहीं हुई लेकिन मेरे यहां के उस समय के यात्री मेरे प्रांगण से घूमते हुए और सभी विषय पर पढ़ने वाले आचार्य से भेंट करते हुए मोहम्मद बख्तियार खिलजी के राज्य में जा पहुंचे वहां उसे पता चला कि वह अभी बीमार है तो मिल नहीं सकता लेकिन यात्रियों ने विनय किया फिर बख्तियार खिलजी ने मिलने के लिए उन लोगों से तैयार हो गए और यात्रियों ने मिलते ही बख्तियार खिलजी को सलाह दी की विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय में चिकित्सा भाग के प्रमुख पंडित राहुल श्री बद्री जी आपका इलाज करके आपको ठीक कर सकते हैं फिर क्या था पंडित श्री राहुल बद्री जी से इलाज की इच्छा प्रकट किया लेकिन बख्तियार खिलजी ने शर्त रखी थी की किसी प्रकार के भारतीय पद्धति से बनाई गई दवा नहीं खाएगा क्योंकि यह दवा काफिरों के द्वारा बनाई जाएगी इसलिए उसने मना कर दिया फिर कुछ समय के बाद श्री राहुल जी बद्री ने कुरान की प्रति बख्तियार खिलजी के पास गए और उन्हें सलाह दी कि प्रतिदिन कुरान की पंक्तियां आप पढ़ेंगे तो आप ठीक हो जाओगे यह मेरा दावा है फिर क्या फिर बख्तियार खिलजी ने कुरान को पढ़ना शुरू कर दिया और वह रोज कई बार कुरान पढ़ने लगे और उन्होंने कुछ दिनों तक कुरान पढ़ें और उसने महसूस किया कि मेरा तबीयत ठीक होने लगा है उसके बाद उसने पता लगाना शुरू किया कि और ठीक कैसे हुए तो उसे पता चला कि पंडित राहुल बद्री जी ने कुरान के पेजों पर दवाई का लेप लगा दिए थे क्योंकि उनको पता था कि कुरान पढ़ने वाले खिलजी हमेशा पन्ने पलटने समय अपनी उंगली पर थूक लगाता है इस माध्यम से शरीर में दवा का असर हुआ और बख्तियार खिलजी का स्वास्थ्य ठीक हो गया उसी के तुरंत बाद खिलजी को यह बात सहन नहीं हुई कि मेरे नीम हकीमो से  मैं ठीक नहीं हो पाया और का काफिर की दवाइयों से मैं ठीक हो गया। और उसने सोचने लगा कि मेरे नीम हकीम की दवाई ठीक नहीं कर पाई परंतु काफिर की दवाई ने मुझे ठीक कर दिया और सोचने लगा कि मेरे हकीमो से ज्यादा ज्ञान उन पंडितों में है और मन ही मन में मेरे प्रति उसके मन में दुश्मनी पैदा हो गया और यही बात उस को सहन नहीं हुई क्योंकि वह एक मूर्ति भंजक था  मूर्ति पूजा को मारना अपना धर्म समझता था और मूर्ति पूजन द्वारा खिलजी को ठीक करना उसको यह बात सहन नहीं हुई और उसे अपनी धर्म की तोहीन नजर आई फिर अचानक एक दिन असाइन के घोड़ों की पैरों की आवाज सुनी खिलजी के सेनो को अपनी और आते महसूस किया लेकिन मैं तो शांति और शिक्षा के लिए विश्व में विख्यात था तो मुझे किस बात का डर था लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ और खिलजी के घोड़ सवारों ने मेरे सारे दरवाजे को बंद कर दिया और एक टोली अंदर घुस गई फिर उसके बाद मैंने जो क्रूर खेल देखा मेरे प्रांगण में जो शब्द है उससे भी मैं उस क्रूर खेल को बयान नहीं कर पाऊं गा , लेकिन कहना बहुत ही आसान है और देखना उतना ही कठिन लेकिन जो मैंने आचार्य और पंडित विश्व के फल -फल के कोनों से आए विद्यार्थियों का टपकता खून देखा लेकिन जो मैंने अपनी नंगी आंखों से देखा उसे बताना बहुत ही कठिन है हजारों शिक्षकों को पलभर में मार दिया गया शांति के संदेश को फैलाने वाले सहायक खाली हाथ वाले मौजूद सभी को खिलजी के मूर्तिपूजक विरुद्ध के मानसिकता ने सब को मार दिया लेकिन कुछ भागने में कामयाब हो गए और कुछ महत्वपूर्ण लिपियों को छुपा कर अपने साथ ले गए जो तिब्बत की और भाग्य और उन्हेंने पांडव लिपि के सहायता से बौद्ध धर्म और शांति का प्रस्तुत तिब्बत में हुआ  मैंने इन्हीं आंखों से वो खूनी खेल देखा जो 10000 विद्यार्थियों के साथ-साथ आचार्य शिक्षक को मार दिया गया उनका कसूर यह था कि वह मूर्ति पूजक है मूर्ति में वह अपनी आस्था रखते थे अगर मैं बोलूं तो मेरे परिसर में मैंने ऐसा खूनी खेल देखा कि कभी भी मैंने इसका कल्पना भी नहीं किया था मैं तो शांति का मंदिर था जब सभी मूर्तिपूजक को मार दिया गया तो फिर खिलजी ने अपने सेनो को आदेश दिया कि मेरे पूरे परिसर को आग लगा दी जाए और मुझे खंडित करके तहस-नहस कर दिया जाए लेकिन मेरे बच्चों अगर मुझ में प्राण होते तो या मैं चल फिर सकता तो सभी रिसर्च पेपर को छुपा देता ताकि मेरे आने वाली पीढ़ियां हजारों सालों के मेहनत को पढ़कर ज्ञान प्राप्त कर सके लेकिन मैं यह कर ना सका मुझे सबसे अधिक पीड़ा उस समय हुई जब मेरे परिसर में मौजूद पुस्तकालय में आग लगा दी गई और वह पुस्तकालय में भारत का भविष्य जो  धू-धू कर जलते हुए मैंने देखा मेरे परिसर में मौजूद तीनों पुस्तकालय को जलते इमारत को देखकर मैं खुद को रोक ना सका और जोर जोर से चिल्ला कर रोने लगा लेकिन मेरी कोई सुनने वाला नहीं था क्योंकि वहां पर सिर्फ मूर्ति पूजा को  विनाश करने ही वाले लोग हैं मैं पूरी तरह धू-धू कर जल रहा था, और मैंने अपनी आंखें बंद कर ली और पूरे 6 महीनों तक विश्वविख्यात पुस्तकालय में आग जलती रहे। और भारत का भविष्य जलते हुए मैंने उस किताब को महसूस किया पूरी तरह से तहस-नहस वीरान खड़ा मैं कई दिनों के धूल मिट्टी में से सबकी आंखों से ओझल हो गया मेरा खंडार रूप  देह जो बचा था वह धूल और मिट्टी से चिपक गया और अंदर ही अंदर में अपने वजूद को मिटते हुए देखा और अंधकार में मेरा दिन बीतने लगा फिर एक दिन ऐसा की मेरे खोज करने वाले अंग्रेज अफसर को 19वीं सदी में अंग्रेज यात्री को एक चाइनीज यात्री के लिखी मेरी डायरी मिली जिसमें उस यात्री ने मेरे बारे में कुछ लिखा था फिर एक दिन वह अंग्रेज उस डायरी में लिखे पते पर पहुंचा लेकिन उसे कुछ ऐसा सबूत नहीं मिला लेकिन उसे टहलते हुए कुछ पांचवी शताब्दी के कुछ ईट के अवशेष मिले फिर हल्का अपने ही हाथों से हर खरोच के देखा तो नीचे एक के ऊपर एक ईटों से सजी हुई दीवार महसूस हुई फिर कुछ दिनों बाद उस जगह पर खुदाई करके मेरे पूरे अवशेष को पूरे दुनिया के सामने लाया गया लेकिन मैं अपने विषयों के बारे में बोलूं तो लगभग 108 विषयों पर विद्यार्थियों अध्ययन करते थे विश्व के कोने-कोने से आने वाले विद्यार्थी के लिए अलग-अलग भाषाओं में पढ़ाई की व्यवस्था की गई थी और मेरे प्रांगण में जगह-जगह पढ़ने के लिए व्यवस्था भी की गई थी और जगह-जगह प्रार्थना की भी व्यवस्था की गई थी और सभी जगह पर रोशनी की भी व्यवस्था की गई थी।  लेकिन मैं अपने बारे में बोलूं तो आज भी ऐसा कोई विश्वविद्यालय नहीं है की जो मेरी टक्कर ले सके फिर बात करूं 19वीं सदी की तो 5 परसेंट ही मेरी खुदाई की गई थी उसके बाद खुदाई बंद कर दी गई लेकिन मेरी खोज वहीं नहीं रुकी उसके बाद 2016 से फिर मेरी खुदाई जारी कर दी गई उसके बाद UNESCO द्वारा मेरे को विश्व धरोहर में शामिल किया गया इसलिए अभी मेरे अवशेष को संभालने और निकालने की जिम्मेदारी UNESCO के द्वारा की जाती है लेकिन मुझे मुख्या 3 राजाओं ने मिलाकर बनाया था जिसमें पहले राजा थे कुमारगुप्त जो मगध के बहुत बड़े राजा थे मगध की राजधानी राजगृह होती थी जो मेरे प्रांगण से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्तिथि फिर दूसरे थे कन्नौज के राजा हर्षवर्धन उन्होंने मेरी प्रांगण की दूसरी मंजिल का निर्माण करवाया लगभग सातवीं शताब्दी में फिर मेरी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी उसके बाद तीसरे राजा देव पाल राणा जो बंगाल के राजा थे यह नवमी शताब्दी में आए और मुझे देखकर प्रसन्न हो गए फिर उन्होंने मेरी ख्याति को बढ़ाते हुए मेरी तीसरी मंजिल का निर्माण किया फिर इस विश्वविद्यालय के नाम और उप नामों के पीछे 3 राज्यों का नाम मेरे से सभी संबंधित के ऊपर लिखा जाता है जिसमें गुप्त वंश हर्ष वंश और पाल वंश जो मेरे लिए स्वर्ण रूप राजा के पद चिन्हों के आहट जो मैं सुन सकता हूं और हां,  मेरे सबसे प्रिय पुस्तकालय के तीन इमारतें का नाम पहला रत्नाददी दूसरा  रतनी रजक तीसरा रत्न सागर लेकिन 12 वीं शताब्दी में मुझे मिटा दिया गया मेरे पुस्तकालय को जलने में 6 महीने इसलिए लग गए कि उस समय कागज नहीं हुआ करते थे अधिकांश पांडुलिपि और रिसर्च के पेपर ताम पत्र के ऊपर लिखे जाते थे और मेरा पूरा पुस्तकालय का नाम धर्म गंज हुआ करता था मेरी कहानी सुनकर आप भी आश्चर्य होंगे कि कि आपने कितना कुछ खो दिया लेकिन मैंने अपने आप को खोकर एक ऐसा दर्द सहा है कि आज भी मैं उससे दृश्य के बारे में सोचता हूं तो मेरी रोम रोम कांप उठती है आज आप जहां घूमने जाते हैं एक समय पर मैं वहां विराजमान था मेरे यहां आने के लिए आपको हवाई मार्ग और सड़क मार्ग और रेल मार्ग से यात्रा करनी पड़ेगी हवाई मार्ग के लिए निकटतम एयरपोर्ट यहां से 79 किलोमीटर दूर निकटतम हवाई अड्डा पटना के जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा है रेल मार्ग के लिए नालंदा में भी रेलवे स्टेशन है किंतु यहां के प्रमुख रेलवे स्टेशन राजगीर है राजगीर जाने वाली सभी ट्रेन नालंदा होकर जाती है फिर सड़क मार्ग नालंदा सड़क मार्ग कई निकटतम सड़क मार्ग से जुड़ा है अगर आप गया से आते हैं तो 80 किलोमीटर दूर पर हूं वही बोधगया से आते हैं तो 110 किलोमीटर की दूरी पर हूं मेरे विश्वविद्यालय के अवशेष  चौदह हेक्टेयर क्षेत्र में मिले हैं। खुदाई में मिली सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्थर से किया गया था मेरे विश्वविद्यालय परिसर के विपरीत दिशा में एक छोटा सा पुरातात्विक संग्रहालय बना हुआ है। इस संग्रहालय में खुदाई से प्राप्त अवशेषों को रखा गया है। इसमें भगवान बुद्ध की विभिन्न प्रकार की मूर्तियों का अच्छा संग्रह है। इनके साथ ही बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियां और प्रथम शताब्दी के दो मर्तबान भी इस संग्रहालय में रखा हुआ है। इसके अलावा इस संग्रहालय में तांबे की प्लेट, पत्थर पर खुदे अभिलेख, सिक्के, बर्त्तन तथा 12 वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं। मेरे अगल बग़ल बड़गांव नालंदा का निकटतम गांव है। यहां एक सरोवर और प्राचीन सूर्य मन्दिर है। यह स्थान छठ के लिए प्रसिद्ध है। नालंदा से थोड़ी दूर पर सिलाव स्थित है जो स्वादिष्ट मिठाई “खाजा” के लिए प्रसिद्ध है। इनके पास ही राजगृह है। इसी शब्दों के साथ मैं अपनी कहानी को विराम देता हूं और मैं नालंदा विश्वविद्यालय आप सभी को अपने प्रांगण में मैं आमंत्रित करता हूं
          

                  WRITER. Praduman SINGH SISODIYA 

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